अमर उजाला की इस ख़बर को पढ़ना चाहिए। कोई कमिश्रनर हैं जो मेरठ-दिल्ली एक्सप्रेस-वे की प्रगति की समीक्षा कर रहे हैं। समीक्षा बैठक में उन्होंने कहा है कि “ऑटो, टू-व्हीलर, ट्रैक्टर और अन्य अनधिकृत वाहनों के चलाने पर एफआईआर की जाएगी। इसके लिए ट्रैफ़िक पुलिस को सख़्त निर्देश दिए। एक्सप्रेस-वे के पास अवैध होर्डिंग, ढाबे पर कार्रवाई करने के आदेश भी दिए गए।” क्या ऐसी योजनाओं के लाँच के समय अख़बार या चैनल का संवाददाता घोषणा के समय यह सवाल करता है कि कार वालों के लिए एक्सप्रेस-वे बन रहा है लेकिन ट्रैक्टर चालकों के लिए रास्ता क्या होगा, क्या कोई लेन बन रही है या उनकी चिन्ता ही नहीं है? या फिर घोषणा के वक़्त यह सब बताया ही नहीं जाता है। अख़बार में बड़ा सा विज्ञापन छप जाता है कि दिल्ली से मेरठ पहुँचना हुआ आसान।
एक्सप्रेस-वे के आते ही सबसे पहले जो चीज़ ग़ायब होती है वह स्थानीय लोगों के विकास की ही है। जिन सड़कों को पार कर गाँव के किसान इस खेत से उस खेत में चले जाते थे या रिश्तेदारों के यहाँ जाया करते थे अब वहाँ पहुँचने के लिए तीन किलोमीटर का लंबा यूँ-टर्न ले रहे हैं ताकि दूर से आने वाले जल्दी गुज़र सकें और जो नज़दीक के हैं वो देर से गुज़रा करें। जहां से भी एक्सप्रेस-वे गुज़रता है वहाँ के स्थानीय लोग उसके कारण अपने आने-जाने की जगहों से और दूर हो जाते हैं। वहाँ तक पहुँचने के लिए पहले से ज़्यादा पैसे भी ख़र्च करते हैं। आज कल पेट्रोल सौ रुपया लीटर है।कार वालों के लिए रफ़्तार ज़रूरी है तो फिर उसमें ऑटो और टू-व्हीलर के लिए लेन क्यों नहीं है।
एक्सप्रेस-वे होना चाहिए या नहीं होना चाहिए इस बहस को छोड़ कर इस पर बात कीजिए कि होना चाहिए तो कैसा होना चाहिए। क्या केवल कार वालों के लिए होना चाहिए। जिस एक्सप्रेस-वे के लिए किसानों की ज़मीन ली जाएगी उसी पर ट्रैक्टर के चलने की अनुमति नहीं होगी। कमिश्नर ने कहा है कि अनधिकृत वाहन नहीं चलेंगे। जब आप कोई भी गाड़ी ख़रीदते हैं तो रोड टैक्स देते हैं। आपका वाहन सड़क पर चलने के लिए अधिकृत होता है लेकिन एक्सप्रेस-वे बनने के बाद एक ख़ास रास्ते के लिए अनधिकृत हो जाता है।
दशकों पहले जब एक्सप्रेस-वे की धारणा जब आयात होकर भारत आई तो भारत में पहले से मौजूद सड़कों के अनुभवों और उनके किनारे विकसित आर्थिक गतिविधियों को उजाड़ दिया गया। धारणा बनाई गी कि सड़क ऐसी हो जिस पर आगे-पीछे, अग़ल-बगल कार वाले ही दिखें। इससे कारें बिकेंगी। अब ऑटोमोबिल सेक्टर पहले की तरह रोज़गार नहीं देता है। सारी बड़ी कंपनियों की कार बनाने की प्रक्रिया रोबोट पर आधारित हो चुकी है। वहाँ आदमी की ज़रूरत पहले से काफ़ी कम हो गई है। लेकिन इस सेक्टर के लिए सड़कों पर मौजूद कारोबार को ख़त्म कर दिया गया। आप एक्सप्रेस वे से दायें-बायें कट नहीं सकते हैं। एक बार प्रवेश किया तो रास्ता उसी तरह से तय करना होगा जैसे सड़क बनाई गई है।

पहले क्या था। सड़क के किराने बहुत से ढाबे वाले होते थे। उन ढाबों पर रुकते समय स्थानीय उत्पादों को भी लोग ख़रीदा करते थे। इससे आस-पास के लोगों के लिए काम के छोटे-मोटे अवसर बनते होंगे और कुछ अमीर लोग भी पैदा होते होंगे। इसके अलावा इन ढाबों से ख़ास विशेषज्ञताएं भी पनपती हैं। किसी का पेठा लोकप्रिय होता है, किसी की लस्सी तो किसी का पराठा। एक्सप्रेस की अवधारणा से ढाबे ग़ायब हैं।कमिश्नर ने कहा है कि किनारे अवैध रुप से चलने वाले ढाबे पाए गए तो एफ आई आर होगी। आप लखनऊ एक्सप्रेस-वे पर जाइये। केवल सड़क दिखती है। ढाबे ग़ायब हैं। बहुत लंबा चलने के बाद एक ढाबा आता है जिसे ठेके पर किसी को दिया गया होता है। जहां कार पार्क करने की सुविधा है। चीज़ें इतनी महँगी हैं कि रोडवेज़ की बस में चलने वाले मुश्किल से ही कुछ ख़रीद सकते हैं।
मैंने जो कहा वह कोई नई बात नहीं है। दिल्ली में जब फ्लाईओवर का दौर शुरू हो रहा था तब प्रो दिनेश मोहन इन बातों को इसी तरह से रखा करते थे। पहले सड़क पर जाम लगता था अब फ्लाईओवर पर लगता है। बहुत कम अपवाद होंगे। उनकी बातें उस समय की थीं जब इन चीज़ों की अवधारणा को लेकर भारत में बेच कर विद्वान बन रहे थे। तब लगता था प्रो दिनेश मोहन पुराने ज़माने की बात कर रहे हैं। आज उनके उठाए सवालों को सच होते देख रहा हूँ। सरकार यही एक रिपोर्ट रख दे कि एक्सप्रेस-वे बनने के बाद उस इलाक़े का विकास कैसे होता है। विकास होता है या विकास के नाम पर विस्थापन होता है।
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